राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक नहीं रोक सकते: सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि राज्यपाल राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक नहीं रोक सकते, लेकिन अदालतें उनके लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकतीं। इस लेख में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा मांगे गए संदर्भ पर कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले और उसके निहितार्थों की जानकारी दी गई है। (The Supreme Court has clarified that Governors cannot stall bills passed by state legislatures indefinitely, but courts cannot fix timelines for their assent. This article explains the court's historic verdict on the reference sought by President Droupadi Murmu and its implications.)
एक ऐतिहासिक और दूरगामी फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य के राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर चल रहे संवैधानिक विवाद पर स्पष्टता प्रदान की है। मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण राय दी कि राज्यपाल राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर अनिश्चित काल तक बैठे नहीं रह सकते। हालांकि, पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि संवैधानिक अदालतें राज्यपालों या राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की कोई कठोर समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकतीं।
यह फैसला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत मांगी गई राय (Presidential Reference) पर आया है। राष्ट्रपति ने मई 2025 में यह संदर्भ तब मांगा था जब सुप्रीम कोर्ट की एक दो-न्यायाधीशों की पीठ ने तमिलनाडु के मामले में राज्यपालों के लिए समय-सीमा तय करने का आदेश दिया था।
फैसले की मुख्य बातें
-
अनिश्चितकालीन देरी स्वीकार्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा कि भारत का संघीय ढांचा सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) पर आधारित है। इसलिए, राज्यपालों को निर्वाचित सदनों के साथ संवाद करना चाहिए, न कि बाधा उत्पन्न करनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक रोक कर रखना संविधान की भावना के विपरीत है।
-
समय-सीमा तय करने पर रोक: अदालत ने स्पष्ट किया कि वह राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए कोई समय-सीमा तय नहीं कर सकती। पीठ ने कहा, "समय-सीमा थोपना संविधान द्वारा संरक्षित लचीलेपन के सख्त खिलाफ है।" इसका अर्थ है कि न्यायिक आदेश के माध्यम से राज्यपालों को मजबूर नहीं किया जा सकता कि वे कितने दिनों में विधेयक पर हस्ताक्षर करें।
-
'डीम्ड असेंट' (Deemed Assent) का सिद्धांत खारिज: सुप्रीम कोर्ट ने उस सिद्धांत को पूरी तरह से खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि यदि राज्यपाल एक निश्चित समय के भीतर कार्रवाई नहीं करते हैं, तो विधेयक को 'स्वतः स्वीकृत' (Deemed Assent) माना जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि यह कार्यपालिका की शक्तियों का हनन होगा और शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत के खिलाफ है।
-
न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश: हालांकि कोर्ट समय-सीमा तय नहीं कर सकता, लेकिन उसने स्पष्ट किया कि अगर राज्यपाल बिना किसी स्पष्टीकरण के लंबे समय तक निष्क्रिय रहते हैं, तो अदालत न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकती है। ऐसे मामलों में, कोर्ट राज्यपाल को "उचित समय" के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दे सकता है।
राज्यपाल के पास उपलब्ध विकल्प
संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल के पास विधेयक प्राप्त होने पर तीन मुख्य विकल्प होते हैं:
-
विधेयक को स्वीकृति देना।
-
विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखना।
-
विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजना (यदि वह धन विधेयक नहीं है)।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल विधेयक को सिर्फ अपनी जेब में रखकर नहीं बैठ सकते; उन्हें ऊपर दिए गए विकल्पों में से कोई एक चुनना होगा।
फैसले का महत्व
यह फैसला केंद्र-राज्य संबंधों में एक नया संतुलन स्थापित करता है। जहां एक ओर यह राज्य सरकारों को राहत देता है कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक नहीं लटका सकते, वहीं दूसरी ओर यह राज्यपालों और राष्ट्रपति के संवैधानिक विवेक का सम्मान करते हुए उन्हें न्यायिक समय-सीमा से मुक्त रखता है।
यह निर्णय विशेष रूप से उन राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं और राज्यपालों के साथ टकराव की खबरें अक्सर आती रहती हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस फैसले के बाद राजभवनों और राज्य सरकारों के बीच संबंधों में क्या बदलाव आता है।