राज्यपालों की शक्ति पर सवाल: 4 राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट में दी चुनौती

राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को रोकने की शक्तियों के खिलाफ 4 विपक्षी-शासित राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है। उनका तर्क है कि यह जनता की इच्छा का अनादर है। यह लेख इस महत्वपूर्ण संवैधानिक बहस और इसके संभावित परिणामों पर केंद्रित है।

Sep 10, 2025 - 21:02
 0
राज्यपालों की शक्ति पर सवाल: 4 राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट में दी चुनौती
राज्यपालों और राष्ट्रपति के अधिकारों पर संवैधानिक बहस: 4 विपक्षी राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया

भारत के संघीय ढांचे में एक बड़ा और महत्वपूर्ण संवैधानिक विवाद सामने आया है। चार विपक्षी-शासित राज्यों - कर्नाटक, पंजाब, केरल और तेलंगाना - ने सुप्रीम कोर्ट का रुख करते हुए एक ऐतिहासिक याचिका दायर की है। इन राज्यों का तर्क है कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के पास विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोकने या उन पर सहमति न देने का कोई विवेकाधीन अधिकार नहीं है, भले ही वे विधेयक "असंवैधानिक" प्रतीत होते हों।

यह मामला भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों पर केंद्रित है। इन राज्यों का मानना ​​है कि राज्यपाल सिर्फ एक 'नाममात्र के प्रमुख' हैं, जिन्हें राज्य मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना चाहिए। उनके अनुसार, किसी विधेयक को रोककर रखना वास्तव में जनता की इच्छा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अनादर है।

कर्नाटक सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ के सामने जोरदार दलीलें पेश कीं। उन्होंने कहा कि विधेयक जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति हैं, और राज्यपाल के पास अधिकतम यह अधिकार है कि वह विधेयक को एक बार पुनर्विचार के लिए विधानसभा में वापस भेज दें। अगर विधानसभा उस विधेयक को दोबारा पास कर देती है, तो राज्यपाल के पास उस पर सहमति देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता।

सुब्रमण्यम ने यह भी तर्क दिया कि "राज्यपाल को व्यापक विवेकाधीन शक्तियां देना एक तरह से द्वैध शासन (dyarchy) को जन्म देगा," जो निर्वाचित राज्य विधानसभा के अस्तित्व के विपरीत है। उनका मानना है कि किसी विधेयक की संवैधानिकता का निर्धारण करना अदालतों का काम है, न कि राज्यपाल का।

दूसरी ओर, केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया है कि राज्यपाल के पास कुछ विशेष परिस्थितियों में विवेकाधिकार होता है, और उन्हें केवल एक "पोस्टमैन" तक सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को उन विधेयकों को रोकना पड़ सकता है जो संघीय ढांचे या संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ हों।

यह विवाद एक ऐसे समय में सामने आया है जब कई विपक्षी शासित राज्यों और केंद्र के बीच राज्यपालों की भूमिका को लेकर तनाव बढ़ रहा है। तमिलनाडु, केरल और पंजाब जैसे राज्यों ने पहले भी अपने राज्यपालों पर विधेयकों पर बेवजह देरी करने का आरोप लगाया है।

सुप्रीम कोर्ट इस मामले को राष्ट्रपति द्वारा किए गए एक संदर्भ के हिस्से के रूप में सुन रहा है, जिसमें यह स्पष्टता मांगी गई है कि क्या राज्यपालों और राष्ट्रपति पर विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए कोई समय सीमा लगाई जा सकती है। इस मामले का अंतिम फैसला भारत के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक शासन के भविष्य पर गहरा असर डालेगा।